June 17, 2025
Vrindavan Monkey

लेख: संपादकीय टीम

“उप्र में लूट की भाजपाई बंदरबाँट से प्रेरित समाचार।”
बस एक पंक्ति, और उत्तर प्रदेश की राजनीति में हलचल मच गई। समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिलेश यादव ने अपने आधिकारिक सोशल मीडिया अकाउंट से यह तंज कसा — और इसकी टाइमिंग बिल्कुल उसी दिन आई जब वृंदावन से एक ‘हीरे जैसी’ खबर सामने आई।

शहर के प्रतिष्ठित ठाकुर बांके बिहारी मंदिर के पास एक बंदर ने एक श्रद्धालु से हीरों से भरा हैंडबैग झपट लिया — अनुमानित कीमत? 20 लाख रुपये! यह कोई मज़ाकिया स्क्रिप्ट नहीं, बल्कि यूपी पुलिस की केस डायरी में दर्ज एक असली घटना है।


वृंदावन का ‘हीरा-हथियाने वाला’ बंदर

8 जून, शुक्रवार की दोपहर, Aligarh के हीरा कारोबारी अभिषेक अग्रवाल अपनी फैमिली के साथ मंदिर में दर्शन कर वापस लौट रहे थे। जैसे ही वे कार की ओर बढ़े, अचानक एक ‘सुपर-चालाक’ बंदर ने मौका ताड़ा और झपट्टा मारकर उनका हैंडबैग छीन लिया।

हैंडबैग में थे – बहुमूल्य हीरे, परिवार के ज़रूरी दस्तावेज़ और कुछ नगद। पूरे दृश्य ने एक क्षण में श्रद्धा यात्रा को ‘चोरी यात्रा’ में बदल दिया।


8 घंटे की रेस: बंदर बनाम पुलिस

अभिषेक अग्रवाल ने पहले तो खाने का लालच देकर बंदर को मनाने की कोशिश की, लेकिन बंदर शायद वृंदावन के सियासी हालात समझ चुका था — उसने किसी चाल में फँसने से इनकार कर दिया।
आखिरकार, हारकर अग्रवाल पहुंचे स्थानीय थाने।

सदर सर्किल ऑफिसर संदीप सिंह के नेतृत्व में पुलिस टीम ने आठ घंटे की “बंदर ट्रैकिंग ऑपरेशन” चलाया। नतीजा? बैग वापस, सामान सुरक्षित, और बंदर… आज़ाद।


मुद्दा गंभीर है, मज़ाक नहीं

इस घटना ने एक बार फिर मथुरा-वृंदावन क्षेत्र में बंदरों की बेलगाम बढ़ती संख्या को उजागर कर दिया है। श्रद्धालु, विदेशी पर्यटक और आम लोग रोज़ इन शरारती जीवों की हरकतों का शिकार बनते हैं — मोबाइल छीना, खाने की चीज़ें लूटीं, बच्चों पर हमला और अब… हीरे तक चोरी!

पर्यटन मंत्रालय से लेकर वन विभाग तक सबने वादे किए, लेकिन ज़मीनी स्थिति यह है कि बंदर अब यूपी में “अघोषित गिरोह” की तरह काम कर रहे हैं — और उनका टारगेट हाई-प्रोफाइल हो चुका है।


अखिलेश का हमला: बंदरबाँट और सत्ता

इसी बीच अखिलेश यादव का यह बयान — “उप्र में लूट की भाजपाई बंदरबाँट से प्रेरित समाचार।” — चर्चा का विषय बन गया।

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यह कोई साधारण चुटकी नहीं थी, बल्कि यह उस गहरे राजनीतिक कटाक्ष का हिस्सा था जिसमें “बंदरबाँट” शब्द का इस्तेमाल भाजपा सरकार की नीतिगत विफलताओं पर किया गया है।

बंदर द्वारा की गई लूट और प्रदेश में चल रही सियासी “लूट” को जोड़ना — अखिलेश ने एक तीर से दो शिकार करने की कोशिश की:

  1. सरकार पर व्यंग्य — कि प्रशासन इतना लाचार है कि बंदर भी बेशर्मी से हीरे चुरा रहे हैं।
  2. भाजपा की आंतरिक गुटबाज़ी और संसाधनों के बंटवारे पर व्यंग्य — जिसे वे ‘बंदरबाँट’ कह रहे हैं।

क्या यह सिर्फ एक मज़ेदार किस्सा है? बिल्कुल नहीं।

यह एक गंभीर प्रशासनिक विफलता है। कोई भी तीर्थस्थल, खासकर जहां विदेशी पर्यटक और श्रद्धालु लाखों की संख्या में आते हों, वहां सुरक्षा, वन्यजीव नियंत्रण और कानून व्यवस्था सबसे पहली ज़रूरत होनी चाहिए।

लेकिन जब बंदर 20 लाख के हीरे छीनकर 8 घंटे तक पुलिस को नचा दें — और राजनीतिक नेता इसे भाजपा के शासन से प्रेरित “बंदरबाँट” बता दें, तो सवाल सिर्फ प्रशासन पर नहीं, पूरे सिस्टम पर उठता है।


प्रचार बनाम प्रदर्शन

उत्तर प्रदेश सरकार लगातार यह दावा करती रही है कि वह विकास के पथ पर है। लेकिन एक बंदर ने इस विकास मॉडल को ही उठाकर वृंदावन की गलियों में उछाल दिया।

सोचिए — जब एक आम श्रद्धालु की सुरक्षा सुनिश्चित नहीं की जा सकती, तो स्मार्ट सिटी, डिजिटल इंडिया और पर्यटन को बढ़ावा देने की बातें सिर्फ भाषणों तक ही सिमट कर रह जाती हैं।


सवाल जो खड़े होते हैं:

  • मथुरा-वृंदावन जैसे धार्मिक हॉटस्पॉट्स में बंदरों पर नियंत्रण के लिए क्या ठोस रणनीति है?
  • क्या यूपी पुलिस के पास ऐसे घटनाओं से निपटने के लिए कोई मानक प्रोटोकॉल है?
  • वन विभाग ने अब तक बंदर समस्या को लेकर कौन से कदम उठाए हैं?
  • क्या तीर्थयात्रियों की सुरक्षा केवल पोस्टर और वादों में ही सीमित है?
  • और सबसे अहम – क्या अब बंदर भी भाजपा की छवि को नुकसान पहुँचा रहे हैं?

निष्कर्ष: बंदर के बहाने बड़े सवाल

इस घटना को केवल एक ‘फनी वायरल न्यूज’ मान लेना हमारी समझ की कमी होगी। यह उस गहराई से उठती चीख है जो प्रदेश के कानून व्यवस्था, पर्यटक सुरक्षा और वन्यजीव नियंत्रण की वास्तविकता को उजागर करती है।

अखिलेश यादव ने इस पर कटाक्ष करके एक बहस की शुरुआत की है — और यह बहस ज़रूरी है। काश, सरकार इसे राजनीतिक टिप्पणी मानकर खारिज करने की बजाय एक चेतावनी के रूप में ले

क्योंकि अगर वृंदावन में बंदर बैग लूट रहे हैं और नेता सिर्फ ट्विटर पर तंज कस रहे हैं — तो लोकतंत्र और प्रशासन, दोनों की गरिमा बंदर के हाथों खेल बन चुकी है।


“विकास” के जंगल में अब बंदर ही राजा हैं।

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