August 30, 2025
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भारतीय क्रिकेट में पैसे की गंध हमेशा से रही है, लेकिन आज हालात उस मुकाम पर पहुँच गए हैं जहाँ यह खेल सिर्फ़ बल्ले और गेंद का नहीं, बल्कि सत्ता और बाज़ार की गठजोड़ का हो गया है। हाल ही में ड्रीम11 ने बीसीसीआई को सूचित किया कि वह भारतीय क्रिकेट टीम की स्पॉन्सरशिप से हट रही है। ख़बर आई कि उनके प्रतिनिधि बीसीसीआई दफ़्तर पहुँचे और कहा कि अब वे टीम इंडिया की जर्सी पर अपना नाम नहीं चाहते। पहली नज़र में यह एक साधारण व्यावसायिक निर्णय लगता है, पर दरअसल इसके पीछे की राजनीति कहीं ज़्यादा गहरी है।

क्रिकेट का बाज़ार और पूँजी की ताक़त

भारत में क्रिकेट महज़ एक खेल नहीं है। यह धर्म है, इमोशन है और एक विशाल मार्केट है। बीसीसीआई दुनिया का सबसे अमीर क्रिकेट बोर्ड है। टीम इंडिया की स्पॉन्सरशिप का मतलब है करोड़ों-करोड़ रुपये का खेल। इस वजह से कोई भी बड़ी कंपनी इस प्लेटफॉर्म को छोड़ना नहीं चाहती। लेकिन जब ड्रीम11 जैसी कंपनी, जिसने फैंटेसी गेमिंग के सहारे युवाओं को बाँध रखा है, अचानक पीछे हटती है, तो सवाल उठना लाज़मी है।

कंपनी के लिए यह सिर्फ़ ब्रांडिंग का मामला नहीं था। क्रिकेट की जर्सी पर उनका नाम छपा होना उनके व्यवसाय की नींव था। ऐसे में अचानक स्पॉन्सरशिप छोड़ने का फ़ैसला ये बताता है कि भारतीय क्रिकेट की राजनीति और व्यावसायिक दबाव किस हद तक बदल चुका है।

सत्ता और क्रिकेट की नज़दीकी

क्रिकेट का असली मालिक जनता नहीं है। असली मालिक वे हैं जो सत्ता में बैठे हैं और जिनके हाथ में खेल की डोरें हैं। बीसीसीआई पर हमेशा से सत्ताधारी दलों का सीधा नियंत्रण रहा है। कोई मंत्री इसका अध्यक्ष रहा है, तो कोई सांसद इसकी कमेटियों में बैठा है। सवाल यह है कि जब क्रिकेट में लोकतंत्र का कोई स्थान ही नहीं है, तो फिर स्पॉन्सरशिप का खेल भी कैसे लोकतांत्रिक होगा?

ड्रीम11 का फ़ैसला भी इसी सियासी दबाव का नतीजा लगता है। हाल के दिनों में कंपनियों पर सरकार की लाइन में चलने का दबाव बढ़ा है। चाहे विज्ञापन हो, मीडिया कवरेज हो या फिर स्पॉन्सरशिप – हर जगह कॉरपोरेट्स को वही दिखाना और करना पड़ रहा है जो सत्ताधारी चाहते हैं।

युवाओं का मोहभंग

ड्रीम11 का कारोबार युवाओं पर टिका है। युवा क्रिकेट देखते हैं, दांव लगाते हैं और कंपनी को मुनाफ़ा कमाने का मौका देते हैं। लेकिन सवाल है – क्या यह व्यवस्था सच में युवाओं को सशक्त कर रही है, या उन्हें एक वर्चुअल नशे की ओर धकेल रही है? क्रिकेट के नाम पर जुए जैसी फैंटेसी लीग का विस्तार हो रहा है। सरकार इस पर आँखे मूँद लेती है क्योंकि इससे मोटा टैक्स आता है।

अब जब ड्रीम11 टीम इंडिया की स्पॉन्सरशिप छोड़ रहा है, तो यह युवाओं के सामने एक बड़ा सवाल खड़ा करता है – क्या उन्हें सिर्फ़ उपभोक्ता और जुआरी बना दिया गया है? या उन्हें खेल की असली आत्मा से जोड़ने की कोई कोशिश होगी?

क्रिकेट का राष्ट्रवाद

टीम इंडिया सिर्फ़ एक टीम नहीं है, यह ब्रांडेड राष्ट्रवाद का पोस्टर है। जब खिलाड़ी तिरंगे वाली जर्सी पहनते हैं तो वह सिर्फ़ खेल नहीं, बल्कि राजनीतिक प्रतीक भी बन जाते हैं। विज्ञापनदाता और स्पॉन्सर इसे अच्छी तरह समझते हैं। इसीलिए वे करोड़ों लगाते हैं – क्योंकि यहाँ खेल से ज़्यादा राष्ट्रवाद बिकता है।

लेकिन सोचिए, जब कोई कंपनी अचानक इस राष्ट्रवादी ब्रांडिंग से पीछे हटती है, तो यह दरअसल उस नैरेटिव पर भी चोट है जिसे सत्ता ने खड़ा किया है। यानी, हर जगह “भारत माता की जय” के नारों के बीच भी कॉरपोरेट की प्राथमिकता सिर्फ़ मुनाफ़ा है, न कि राष्ट्रवाद।

मीडिया की चुप्पी

इस ख़बर पर मुख्यधारा मीडिया ने सिर्फ़ इतना बताया कि “ड्रीम11 ने स्पॉन्सरशिप छोड़ दी”। किसी ने यह नहीं पूछा कि क्यों छोड़ी? किस दबाव में छोड़ी? क्या यह आर्थिक मंदी का नतीजा है या सत्ता के दबाव का? यहाँ मीडिया की भूमिका फिर से बेनक़ाब हो गई है। जैसे हमेशा, वैसे ही इस बार भी उन्होंने सिर्फ़ प्रेस रिलीज़ पढ़ दी, लेकिन असली सवाल पूछने की हिम्मत नहीं दिखाई।

सत्ता, बाज़ार और खेल का तिकड़ी गठजोड़

क्रिकेट अब सिर्फ़ खेल नहीं रहा। यह सत्ता, बाज़ार और मीडिया का गठजोड़ बन चुका है। यहाँ असली खिलाड़ी वे नहीं हैं जो मैदान पर बल्ला घुमाते हैं, बल्कि वे हैं जो दिल्ली और मुंबई की मीटिंग रूम में बैठकर सौदे करते हैं। जनता को सिर्फ़ उत्साह और राष्ट्रवाद का चारा दिया जाता है, ताकि वह असली सवाल भूल जाए – रोजगार कहाँ है, शिक्षा क्यों बदतर हो रही है, स्वास्थ्य सेवाएँ क्यों ढह रही हैं।

असली सवाल

आज ड्रीम11 के जाने पर चर्चा हो रही है, कल कोई दूसरी कंपनी आ जाएगी। लेकिन असली सवाल वही रहेंगे –

  • क्या खेल को सिर्फ़ कॉरपोरेट की जेब भरने का ज़रिया बना दिया गया है?
  • क्या क्रिकेट टीम अब जनता की नहीं, बल्कि ब्रांड्स की टीम है?
  • क्या सरकार और कॉरपोरेट्स ने मिलकर युवाओं को सिर्फ़ उपभोक्ता बना दिया है?

जब तक इन सवालों पर बहस नहीं होगी, तब तक हर स्पॉन्सरशिप बदलाव महज़ सतही चर्चा रहेगा।

निष्कर्ष

ड्रीम11 का फ़ैसला बीसीसीआई के लिए एक झटका है, लेकिन उससे कहीं बड़ा झटका उस जनता को है जिसने क्रिकेट को अपने खून-पसीने से बनाया। आज भारतीय क्रिकेट के मंच पर जो खेल हो रहा है, वह बल्ले और गेंद का नहीं, बल्कि सत्ता और बाज़ार की साझेदारी का है।

यही सवाल हमें आज पूछना चाहिए – आखिर क्रिकेट किसका है? जनता का, खिलाड़ियों का, या उन कॉरपोरेट घरानों का जो तिरंगे को भी विज्ञापन का हिस्सा बना देते हैं?


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