
कभी याद है वो दिन… जब न अंगुलियों में मोबाइल था, न कानों में ईयरफोन?
बस मिट्टी थी, उसमें खेलते सपने थे, और वो बूढ़ी दादी की कहानी जो हर रात हमारे अंदर एक नयी दुनिया बसाती थी।
हम जान भी नहीं पाते थे कि गर्मी आ गई है या सर्दी गई है —
क्योंकि मौसम से ज़्यादा हमें दोस्ती की आहट सुनाई देती थी।
कोई “भैया” बुला लेता था छत पर पतंग उड़ाने,
तो कोई “चुपके से” पीपल के पीछे गुल्ली-डंडा छुपा आता था।
भूख लगती थी तो घर के बाहर लगी नीम या इमली चख लेते थे,
और जब मां की आवाज़ गूंजती — “अब बहुत हुआ, अंदर आओ”
तो वही आवाज़, उस शाम की अंतिम घंटी बन जाती थी।
हम पिटते थे, मगर सिखते भी थे।
डांट में कुछ ऐसा स्नेह छुपा होता था जो दिल की ज़मीन पर बीज सा गिरता था।
फिर वही बीज एक दिन इंसानियत की फसल बन जाता था।
अब जब आंखें चारों ओर देखती हैं —
तो लगता है कि बचपन कहीं झुर्रियों में छुपकर रो रहा है।
अब बच्चे गुस्से में खिलौने नहीं तोड़ते,
वे खुद को तोड़ लेते हैं।
छोटा सा मन अब इतनी बड़ी-बड़ी बातें करने लगा है
जिनका वज़न शायद उनके कंधे भी नहीं उठा सकते।
कभी सोचिए, जब आपने पहली बार “गाली” सुनी थी —
तो वो गली के किसी आवारा लड़के की ज़ुबान पर थी,
जिससे माँ दूर रहने को कहती थी।
अब वही गालियाँ वीडियो गेम में, कॉमेडी क्लिप्स में, सोशल मीडिया रील्स में
बच्चों की उंगलियों के नीचे नाच रही हैं — और हमें पता भी नहीं।
क्या हमने ही वो दरवाज़ा नहीं खोला?
जिससे होकर ‘तमीज़’ चुपचाप बाहर चली गई और ‘तहज़ीब’ ने विदाई ली?
हमने टीवी के सामने प्लेट रखकर खाना सिखाया —
और फिर हैरान हो गए कि बच्चे खाने की दुआ भूल गए।
हमने रिश्तों की जगह रिमोट पकड़ा दिया —
और अब रिश्ते रिमोट से भी ज़्यादा दूर हो गए।
माना कि वक़्त बदलता है।
लेकिन क्या वक़्त के साथ वो जड़ों को छोड़ देना ज़रूरी है जो हमें इंसान बनाती हैं?
बच्चे अब सवाल नहीं करते —
क्योंकि उनके आसपास कोई इतना धैर्य से सुनने वाला नहीं है।
वे अब चिल्लाते हैं — क्योंकि चुप रहकर भी कोई नहीं सुनता।
कभी घर की रसोई में मां के पास बैठने का सुख था —
अब ‘किचन’ बस एक तस्वीर बन गया है इंस्टाग्राम पर।
पहले हम दादी से कहानी सुनकर राजा बनते थे,
अब बच्चे स्क्रीन पर युद्ध देखकर ‘हंटर’ बन जाते हैं।
उन्हें अपने गुस्से का कारण नहीं पता,
क्योंकि हमने कभी उन्हें बताया ही नहीं कि दुख को कैसे समझा जाए।
हमने कभी उन्हें ये नहीं सिखाया कि ‘माफ़ी मांगना कमज़ोरी नहीं, ताकत है।’
हमने कभी वक़्त ही नहीं निकाला ये पूछने का —
कि उनके मन में क्या चल रहा है?
और जब उनके भीतर की दरारें गहरी हो गईं,
तो हमने कह दिया — “ये आजकल की जनरेशन ही बिगड़ गई है।”
नहीं, जनरेशन नहीं बिगड़ी।
हमने लोरी देना छोड़ दिया है।
अब कहानियाँ गूगल से आती हैं,
और संस्कार वीडियो कॉल पर भेजे जाते हैं।
हम ये भूल गए कि
तहज़ीब सिर्फ़ स्कूल में नहीं,
खामोशी में भी सिखाई जाती है।
वो चुपचाप घुटनों पर बैठकर जूता पहनाने से आती है,
वो दरवाज़े तक छोड़ने वाले स्पर्श में छुपी होती है।
बच्चे सिखते हैं जो वो देखते हैं,
ना कि जो हम बोलते हैं।
तो अगर आज वो हिंसक हैं, चिड़चिड़े हैं, गुस्सैल हैं —
तो शायद ये उनके चारों ओर से उठती उन आवाज़ों का शोर है
जहां न कोई ठहराव है, न अपनापन।
अब वक़्त है थोड़ी देर बैठने का।
फिर से मिट्टी में हाथ डालने का।
उनकी आंखों में आंखें डालकर बिना किसी वजह के मुस्कुराने का।
उनसे एक बार पूछिए —
“तुम्हें मेरी सबसे कौन-सी बात अच्छी लगती है?”
शायद वो जवाब आपको भी आपके खोए हुए बचपन से मिला दे।
क्योंकि बच्चे कभी ज़मीन से नहीं गिरते,
वो तो बड़ों की खामोशी से फिसलते हैं।
तहज़ीब अभी मरी नहीं है, बस इंतज़ार कर रही है —
किसी गर्म हथेली, किसी धीमी आवाज़,
और किसी सच्चे ‘मैं हूँ न’ के।