September 1, 2025
Street view with 'Spread Love' mural and a young tree on a sidewalk.

भारत जैसे विविधता से भरे देश में जहां सहिष्णुता, भाईचारा और लोकतांत्रिक मूल्यों को सदियों से आदर्श माना जाता रहा है, आज एक गहरी चिंता का विषय उभर रहा है—नफरत का संगठित और सुनियोजित विस्तार। “नफरत अब सिर्फ राजनीतिक लामबंदी का उपकरण नहीं रही, बल्कि भारतीय राज्य की मूल आत्मा और संरचना को बदलने का प्रोजेक्ट बन चुकी है।” यह कथन न केवल वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य की सच्चाई को बेपर्दा करता है, बल्कि समाज के हर जागरूक नागरिक को चेतावनी भी देता है।

🔹 नफरत का सुनियोजित इस्तेमाल: सत्ता का नया औजार

An outdoor archery target with arrows shot into words like hate and racism, promoting a message of unity.

आज के राजनीतिक दौर में नफरत सिर्फ चुनावी वोट बटोरने या जनता को भ्रमित करने की रणनीति भर नहीं रही। यह अब सत्ता का स्थायी औजार बन चुकी है। नफरत का यह जाल धार्मिक अल्पसंख्यकों, महिलाओं, दलितों और अन्य कमजोर तबकों पर केंद्रित किया गया है। सड़कों पर सक्रिय भीड़तंत्र (विजिलांते) और संगठनात्मक रूप से प्रशिक्षित समूह उन तबकों को निशाना बना रहे हैं जो संविधान में बराबरी और सम्मान के अधिकारी हैं।

🔹 संस्थाओं की भूमिका और उनकी चुप्पी

लोकतंत्र की आत्मा उसकी संस्थाओं में बसती है। न्यायपालिका, मीडिया, चुनाव आयोग और पुलिस—ये सभी संस्थाएं किसी भी लोकतंत्र की रीढ़ होती हैं। लेकिन विडंबना यह है कि नफरत के इस प्रोजेक्ट के सामने ये संस्थाएं कमजोर और कई बार मूक दर्शक बनती जा रही हैं।

सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में नफरत भरे भाषणों और हिंसा पर चिंता जताई है, लेकिन जमीनी स्तर पर कार्रवाई की गति और प्रभावशीलता नाकाफी है। पुलिस तंत्र राजनीतिक दबाव में काम करता दिखता है, और मीडिया का एक बड़ा हिस्सा सत्ता के प्रचारक की भूमिका में तब्दील हो गया है।

🔹 अंतरराष्ट्रीय छवि पर असर

हाल ही में अमेरिका और अन्य देशों की यात्रा एडवाइजरी में भारत को महिलाओं और अल्पसंख्यकों के लिए असुरक्षित बताया गया। यह भारत की वैश्विक छवि के लिए गंभीर चेतावनी है। एक ऐसा देश जो ‘वसुधैव कुटुंबकम’ और ‘अतिथि देवो भव’ की बात करता है, वहां आज विदेशी पर्यटक भी खुद को असुरक्षित महसूस कर रहे हैं।

🔹 हमारी जिम्मेदारी: नफरत के खिलाफ जनआंदोलन

नफरत के इस सुनियोजित प्रोजेक्ट के खिलाफ आवाज उठाना अब हर नागरिक की नैतिक जिम्मेदारी बन गई है। हमें नफरत की राजनीति और समाज में फैलती हिंसा के खिलाफ संगठित जनआंदोलन खड़ा करना होगा।

शिक्षा, संवाद, और संवैधानिक मूल्यों की पुनर्स्थापना इस संघर्ष का आधार बन सकती है। साथ ही, संस्थाओं पर जनदबाव बनाया जाना चाहिए ताकि वे अपने संवैधानिक कर्तव्यों का निर्वहन करें।

भारत की आत्मा उसकी विविधता और समावेशिता में है। अगर नफरत की राजनीति और हिंसा का यह प्रोजेक्ट इसी तरह चलता रहा, तो यह केवल अल्पसंख्यकों या कमजोर तबकों का नुकसान नहीं होगा, बल्कि भारतीय लोकतंत्र का संपूर्ण ढांचा चरमरा जाएगा। आज जरूरत इस बात की है कि हम मिलकर इस नफरत की सुनामी का मुकाबला करें और एक ऐसा भारत रचें जहां संविधान और इंसानियत की जीत हो।

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