
पीलीभीत से एक अनोखी मगर चिंता पैदा करने वाली ख़बर सामने आई है। कलेक्ट्रेट परिसर में स्थित एक मस्जिद और मजार को लेकर खड़ा हुआ विवाद अब केवल ज़मीन या धार्मिक पहचान तक सीमित नहीं रहा, बल्कि वक्फ़ बोर्ड के रिकॉर्ड्स, स्थानीय प्रशासन की पारदर्शिता और संगठनों की नीयत पर भी सवाल उठा रहा है।
अखिल भारत हिन्दू महासभा ने जिला प्रशासन से इस मस्जिद को “अवैध” घोषित कर कार्यवाही की मांग की थी। संगठन का कहना था कि यह निर्माण कार्य कलेक्ट्रेट और अफसर कॉलोनी की भूमि पर बिना अनुमति हुआ है, और यह भूमि सरकारी उपयोग में आनी चाहिए।
लेकिन जब प्रशासन ने अभिलेखों की जांच की, तो मस्जिद को उत्तर प्रदेश सुन्नी सेंट्रल वक्फ बोर्ड के रिकॉर्ड में विधिवत रूप से पंजीकृत पाया गया — 861 नंबर की प्रविष्टि के साथ। यही नहीं, वक्फ बोर्ड के ऑनलाइन पोर्टल पर भी इसका स्पष्ट उल्लेख है।
अब प्रश्न यह उठता है कि क्या यह मामला केवल “अवैध निर्माण” की जांच थी, या इसके पीछे कोई गहरी धार्मिक-राजनीतिक मंशा काम कर रही थी?
अखिल भारत हिन्दू महासभा इस निर्णय के बाद बैकफुट पर जरूर नजर आ रही है, लेकिन इस पूरे घटनाक्रम ने एक बार फिर यह उजागर कर दिया है कि धार्मिक स्थल, ज़मीन और प्रशासनिक कार्रवाई कैसे राजनीति के मोहरे बनते जा रहे हैं।
विचारणीय यह है कि अगर वक्फ़ बोर्ड में कोई संपत्ति विधिवत दर्ज है, तो उसे “अवैध” कहने से पहले क्या ऐसे संगठनों को कानून की पूरी जानकारी नहीं लेनी चाहिए? क्या प्रशासन को भी जल्दबाज़ी में “जांच का आश्वासन” देने के बजाय रिकॉर्ड की पड़ताल नहीं करनी चाहिए थी?
ध्यान देने योग्य यह भी है कि यह मामला कलेक्ट्रेट परिसर जैसे संवेदनशील स्थल से जुड़ा हुआ है। जब सत्ता और धर्म का संगम किसी विवाद में बदल जाता है, तो न सिर्फ धार्मिक सौहार्द प्रभावित होता है, बल्कि सरकारी तंत्र की विश्वसनीयता भी खतरे में पड़ती है।
आज जरूरत इस बात की है कि कानून और तथ्य को प्राथमिकता दी जाए, न कि भावना और राजनीतिक एजेंडे को। किसी भी धार्मिक स्थल की वैधता का निर्णय अदालत, अभिलेख और संविधान करेगा — न कि नारे, ज्ञापन या संगठनिक दबाव।
समाज को जोड़ने की बजाय तोड़ने वाले ऐसे मामलों से निपटने के लिए प्रशासन को कठोर लेकिन संतुलित रुख अपनाना होगा — ताकि कानून का राज बना रहे, न कि अफवाहों और आग्रहों का।