लखनऊ का एक और घर खामोश हो गया। एक और दरवाज़ा बंद हुआ — इस बार हमेशा के लिए। कोई लोन की किस्तें चुका न सका, कोई सिस्टम से हार गया, और एक परिवार पूरा मिट गया।
आश्रफाबाद की गलियों में सोमवार की सुबह वो ख़बर तैरने लगी जो समाज को झकझोर देनी चाहिए थी — पर शायद अब हम इतने अभ्यस्त हो चुके हैं कि कुछ फर्क नहीं पड़ता। कपड़े के कारोबारी शोभित रस्तोगी (48), उनकी पत्नी सुचिता (44) और प्यारी सी बेटी ख्याति (16) — तीनों ने ज़हर खाकर आत्महत्या कर ली।
कहने को ये एक पुलिस की रिपोर्ट है — बैंक का कर्ज़ था, परेशान थे, सल्फास की शीशी मिली। लेकिन असल कहानी उस लोन की नहीं, उस तड़प की है जो धीरे-धीरे आदमी को निगलती है, और उसे ऐसा महसूस कराती है कि इस समाज में जीने का कोई मतलब नहीं बचा।
शोभित, जो कभी दुकानदार रहा होगा, जिसने बेटी की मुस्कान के लिए सपने बुनने शुरू किए होंगे, आज सिस्टम के सामने इतना मजबूर हो गया कि पूरा परिवार लेकर दुनिया छोड़ गया। ख्याति — सिर्फ़ 16 साल की — उसने कैसे समझ लिया कि ये दुनिया अब उसके लायक नहीं रही?
बेटी ने आख़िरी दम तक मदद माँगी — चाचा को फ़ोन किया, उम्मीद थी शायद बचा लिए जाएँ। पर जब तक ये समाज जागता है, तब तक अक्सर देर हो चुकी होती है।
यह सिर्फ़ एक “केस” नहीं है। यह उस चुप्पी का सबूत है जो धीरे-धीरे मौत में बदल जाती है। हममें से कोई नहीं पूछता कि आख़िर यह कर्ज़ कैसे इतना बड़ा हो गया? क्यों नहीं कोई साथ आया? क्यों नहीं समाज ने एक आवाज़ उठाई?
जब तक हम केवल आंकड़ों में ज़िंदगियाँ गिनते रहेंगे, तब तक ख्याति जैसी मासूम आँखें बंद होती रहेंगी।
शायद वक़्त आ गया है सवाल करने का — सिर्फ़ सिस्टम से नहीं, खुद से भी।
हम कब आवाज़ देंगे उस परिवार को जो अब कभी लौटेगा नहीं?
