
उत्तर प्रदेश के जौनपुर जिले में रविवार की सुबह एक राजनीतिक मंच पर जो कुछ घटा, उसने लोकतंत्र के उस हिस्से को शर्मसार कर दिया, जहां विचारों की लड़ाई होनी चाहिए, वहां हाथ उठने लगे। सुहेलदेव स्वाभिमान पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष महेंद्र राजभर को पहले मंच पर माला पहनाकर सम्मानित किया गया — लेकिन उसी क्षण, वही हाथ जिन्होंने माला पहनाई थी, ताबड़तोड़ तमाचे बरसाने लगे।
जी हाँ, सम्मान की माला, अपमान की शुरुआत बन गई।
ये दृश्य किसी नाटक का हिस्सा नहीं, बल्कि एक जीवंत वीडियो का यथार्थ है जो अब सोशल मीडिया की गलियों में घूम रहा है। घटना जलालपुर थाना क्षेत्र के नहोरा आशापुर गांव की है, जहां सुहेलदेव जी की जयंती पर एक सार्वजनिक सभा आयोजित की गई थी। जहां जनता, पत्रकार, और तमाम नेता मौजूद थे — वहीं मंच पर महेंद्र राजभर को पार्टी के ही पूर्व प्रदेश अध्यक्ष बृजेश राजभर ने माला पहनाकर ‘अतिथि देवो भवः’ की परंपरा निभाई… लेकिन अगले ही क्षण ‘लोकतंत्र के देवता’ को थप्पड़ों की बरसात से स्नान कराया।
ऐसे में सवाल यह उठता है — यह क्रोध था, राजनीति की निराशा, या सत्ता की दिशा बदलने का इशारा?
सपा प्रमुख अखिलेश यादव ने भी इस पूरे प्रकरण को सिर्फ एक हमला नहीं, बल्कि ‘पीडीए समाज’ (पिछड़ा, दलित, अल्पसंख्यक) पर लगातार हो रहे अपमान की कड़ी बताया है। उन्होंने भाजपा शासन पर निशाना साधते हुए कहा — “यह हमला बताता है कि भाजपा समाज को तोड़कर अपनी राजनीति मजबूत करना चाहती है। अगर यह हमला किसी राजनीतिक शह पर हुआ है, तो वह और भी खतरनाक संकेत है।”

दरअसल, सवाल केवल एक थप्पड़ का नहीं है। सवाल यह है कि मंचों पर जो हाथ उठते हैं, क्या वे व्यक्तिगत गुस्से की अभिव्यक्ति होते हैं — या किसी गहरे सियासी षड्यंत्र के ट्रिगर बिंदु?
कार्यक्रम आयोजक संतोष राजभर के मुताबिक, इस समारोह का उद्देश्य महाराजा सुहेलदेव की मूर्ति स्थापना का भूमि पूजन था, न कि राजनीतिक असहमति की पटकथा का मंचन। लेकिन जो हुआ — उसने इस आयोजन की पवित्रता पर ही प्रश्नचिह्न लगा दिया।
पूर्वांचल महापंचायत के नेता मिंटू राजभर ने इस हमले को न केवल निंदनीय बताया, बल्कि यह मांग भी की कि अब महेंद्र राजभर को उचित सुरक्षा दी जाए, क्योंकि “कल हमारा भी नंबर आ सकता है।”
महेंद्र राजभर का अतीत भी राजनीति की कई परतों को उजागर करता है। वर्ष 2017 के चुनाव में उन्होंने भाजपा के समर्थन से माफिया डॉन मुख्तार अंसारी के खिलाफ चुनाव लड़ा था, और तभी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उन्हें ‘कटप्पा’ की उपाधि दी थी — जो बाहुबली से मुकाबला करेगा। लेकिन वक्त के फेर में वही ‘कटप्पा’ आज खुद को अपनों के कटघरे में खड़ा पा रहा है।
और इस बार, युद्ध महलों में नहीं, मंचों पर लड़ा जा रहा है — जहां तलवारों की जगह अब माला और थप्पड़ हैं।
अब पुलिस ने मामला दर्ज कर जांच शुरू कर दी है, और महेंद्र राजभर ने सीधे-सीधे इस हमले के पीछे ओमप्रकाश राजभर का नाम लिया है। यह एक और सवाल है, जिस पर लोकतंत्र की आंखें टिकी हैं।
तो क्या राजनीति में विरोध का मतलब अब मारपीट है? क्या लोकतांत्रिक असहमति की जगह अब हिंसा ले रही है? और क्या सत्ता का संघर्ष अब गाल पर पड़े थप्पड़ों से तय होगा?
इन सवालों के जवाब फिलहाल मौन हैं… लेकिन यह मौन कभी न कभी बोलेगा। और जब बोलेगा — तो माइक नहीं, शायद फिर से माला उठेगी… या शायद, एक और तमाचा।