
भोपाल से रिपोर्ट |
मध्यप्रदेश में कभी भारतीय जनता पार्टी को सत्ता की सीढ़ियां चढ़ाने में अहम भूमिका निभाने वाले किसान आज अपने हक के लिए सड़कों पर घुटनों के बल रेंगते दिखाई दे रहे हैं। बीते दिनों किसानों का ऐसा दृश्य सामने आया, जिसने सरकार की संवेदनशीलता और किसानों के प्रति दृष्टिकोण पर गहरे सवाल खड़े कर दिए हैं।
ये किसान न तो किसी राजनीतिक आंदोलन के मोहरे हैं और न ही कोई बाहरी उकसावे के तहत सड़कों पर हैं, बल्कि ये वे लोग हैं जिन्होंने वर्षों तक खेतों में पसीना बहाकर राज्य की कृषि उत्पादन को देश में अग्रणी बनाने में योगदान दिया।
क्यों घुटनों के बल रेंगने पर मजबूर हुए किसान?
यह दृश्य मध्यप्रदेश के एक ज़िले में तब सामने आया जब किसानों ने अपनी मांगों को लेकर शांतिपूर्ण ढंग से प्रदर्शन शुरू किया। पहले तो उन्हें नजरअंदाज किया गया, फिर जैसे ही प्रशासन ने बैरिकेडिंग कर रास्ता रोका, इन किसानों ने घुटनों के बल रेंगते हुए प्रदर्शन करना शुरू कर दिया।
उनकी मांगें बेहद बुनियादी हैं —
- फसल बीमा योजना के लाभ की राशि तुरंत जारी हो
- बकाया मुआवजा दिलाया जाए
- कर्जमाफी की घोषणा पर अमल हो
- बिजली की दरों में राहत मिले
कई किसानों ने बताया कि उन्होंने दर्जनों बार जनसुनवाई, तहसील और कलेक्ट्रेट के चक्कर लगाए लेकिन कहीं सुनवाई नहीं हुई। थक-हारकर अब वे सड़कों पर हैं।
भाजपा के लिए शर्मनाक संकेत?
भाजपा को राज्य की सत्ता में लाने में किसानों की भूमिका को भुलाया नहीं जा सकता। सालों तक किसान संगठनों के समर्थन से बनी सरकार आज उन्हीं किसानों की अनदेखी कर रही है — यह दृश्य जनता के बीच गलत संदेश छोड़ रहा है।
राजनीतिक विश्लेषकों की मानें तो यह आंदोलन किसी विपक्षी पार्टी के इशारे पर नहीं बल्कि किसानों की पीड़ा का स्वाभाविक परिणाम है। किसानों का घुटनों के बल रेंगना न केवल उनकी असहायता को दर्शाता है बल्कि सत्ता में बैठे लोगों की संवेदनहीनता को भी उजागर करता है।
प्रशासनिक रवैये पर भी उठे सवाल
प्रदर्शन के दौरान प्रशासन की ओर से कोई वरिष्ठ अधिकारी न मौके पर पहुंचा, न ही किसानों से बातचीत की गई। इस तरह का रवैया बताता है कि किसानों की आवाज़ें अब शायद सत्ता के गलियारों तक पहुंच ही नहीं रहीं।
हालांकि सरकार की ओर से यह तर्क दिया गया कि मामला संज्ञान में है और जल्द समाधान निकाला जाएगा, लेकिन इससे पहले भी कई बार ऐसे आश्वासन दिए जा चुके हैं जो केवल कागज़ों तक ही सीमित रह गए।
निष्कर्ष: क्या अब किसान की जगह केवल चुनावी पोस्टर में है?
मध्यप्रदेश के इन किसानों की रेंगती हुई तस्वीरें उन वादों और नारों की असलियत को उजागर करती हैं, जिनमें ‘अन्नदाता’ को भगवान का दर्जा दिया गया था।
यदि यही स्थिति रही तो आने वाले चुनावों में भाजपा को वही किसान सबक सिखा सकते हैं, जिनकी मेहनत पर कभी सत्ता का आधार बना था। यह सिर्फ एक आंदोलन नहीं, बल्कि गांव से निकलती चेतावनी की आवाज है — जिसे अब नजरअंदाज नहीं किया जा सकता।