
आंध्र प्रदेश में जनसंख्या नीति का उल्टा चक्र!
कभी चंद्रबाबू नायुडु वही नेता थे जिन्होंने राज्य में यह सख्त कानून बनाया था — “दो से अधिक बच्चे? तो फिर पंचायत चुनाव में उम्मीदवारी भूल जाइए!” लेकिन वक्त बदला है, और अब वही नायुडु खुद कह रहे हैं — “और बच्चे पैदा करो, इनाम मिलेगा!”
यह यू-टर्न नहीं, एक राजनीतिक और सामाजिक विस्फोट है। यह उस जनसंख्या विमर्श की कब्र है, जिसकी ईंटें दशकों से “संयम” और “नियंत्रण” की नसीहतों से रखी गई थीं। अब मुख्यमंत्री जी प्रोत्साहन की नीति पर अमल करना चाहते हैं — ज्यादा बच्चे, ज्यादा नकद, और अगर लड़का हुआ तो एक गाय बोनस में!

🧭 क्यों नायुडु को बदलनी पड़ी सोच?
दरअसल, यह मज़ाक नहीं, एक गंभीर जनसंख्या संकट की दस्तक है। राज्य की प्रजनन दर (TFR) 1.6 के आसपास जा पहुंची है — जो राष्ट्रीय “रिप्लेसमेंट लेवल” 2.1 से नीचे है। इसका सीधा मतलब है कि आने वाले वर्षों में बुज़ुर्गों की भीड़ और युवाओं का सूखा देखने को मिलेगा।
नायुडु की चिंता जायज़ है — “अगर हम यूं ही चुप रहे, तो गांव वीरान हो जाएंगे, बुज़ुर्ग अकेले घरों में रह जाएंगे और काम करने वाला कोई नहीं बचेगा।”
💡 तो क्या समाधान है? बच्चों की बाढ़?
मुख्यमंत्री का समाधान है — “ह्यूमन कैपिटल में निवेश।” यानी राज्य के अमीर परिवार, गरीबों को “गोद लें”, उन्हें बच्चे पालने में मदद करें, ताकि सामाजिक सुरक्षा की ज़िम्मेदारी एक साझा बोझ बने। इससे उन्हें उम्मीद है कि 2047 तक युवाओं की फ़ौज बची रहेगी।
अब जन्म देने पर ₹15,000 से ₹50,000 तक नकद, तीसरे बच्चे पर विशेष प्रोत्साहन, और लड़का होने पर गाय!
इसके साथ मातृत्व अवकाश अनलिमिटेड, वर्कप्लेस पर चाइल्ड केयर ज़रूरी, और सब्सिडी वाला चावल बढ़ाकर 25 किलो तक।
⚖️ लेकिन सवालों का सैलाब भी है
कई सामाजिक संगठनों ने इसका विरोध शुरू कर दिया है। “क्या अब महिलाएं सिर्फ बच्चे पैदा करने की मशीन बन जाएंगी?”
स्वास्थ्य, शिक्षा, पोषण — क्या इन ढांचों की तैयारी है? लड़के पर गाय और लड़की पर कुछ नहीं — यह तो सीधा लिंग भेद को संस्थागत बनाना है।
वहीं कुछ अर्थशास्त्रियों का कहना है — “रोज़गार, ऑटोमेशन और आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस के दौर में जनसंख्या वृद्धि बुद्धिमत्ता नहीं, आत्महत्या है।”
🗳️ राजनीति भी है अंदर की बात
2026 में होने वाली जनगणना और निर्वाचन सीमांकन के लिए जनसंख्या अहम होगी। दक्षिण भारत की गिरती आबादी कहीं उसे राजनीतिक प्रतिनिधित्व से वंचित ना कर दे — शायद इसी डर ने नायुडु और स्टालिन जैसे नेताओं को जन्म दर बढ़ाने की ओर धकेला है।
🔚 निष्कर्ष: नीति की शल्य चिकित्सा जरूरी है
नायुडु की चिंता वाजिब है, लेकिन समाधान का रास्ता नाजुक है। जनसंख्या बढ़ाने की नीति बिना समावेशी, सुरक्षित और दीर्घकालिक तैयारी के, कहीं सामाजिक विषमता, महिला उत्पीड़न और संसाधनों की कमी को और ना बढ़ा दे।
“जनसंख्या नीति सिर्फ संख्या नहीं, सोच का आईना होती है।”
और इस आईने में, अब सवाल यह नहीं कि कितने बच्चे हों —