August 30, 2025
online gmaing

क्या आपने गौर किया है कि सरकार जब भी कोई नया कानून या प्रतिबंध लाती है, तो सबसे ज़्यादा असर उन लोगों पर होता है जिनकी आवाज़ सत्ता के गलियारों तक पहुँच ही नहीं पाती? अभी हाल ही में ऑनलाइन मनी गेमिंग प्लेटफॉर्म्स पर लगाया गया बैन भी यही कहानी कहता है।

किसके लिए अच्छा है ये बैन?

पहली नज़र में सरकार यह कहेगी कि यह कदम जनहित में है। यह युवाओं को जुए और लत से बचाने के लिए है। सही भी है—लाखों नौजवान इन ऐप्स में अपनी पढ़ाई, करियर और घर की बचत तक दाँव पर लगा बैठे थे। परिवार बर्बाद हो रहे थे, कर्ज़ बढ़ रहे थे और मानसिक बीमारियाँ जन्म ले रही थीं। ऐसे में यह बैन कुछ हद तक राहत ज़रूर लाता है।

लेकिन यही तस्वीर का केवल आधा हिस्सा है।

किसके लिए बुरा है यह बैन?

सोचिए, लाखों लोगों की आजीविका इन कंपनियों से जुड़ी हुई थी। छोटे कस्बों से लेकर बड़े शहरों तक हज़ारों युवाओं को यहाँ नौकरियाँ मिली हुई थीं। सिर्फ़ कंपनी के मालिक ही नहीं, बल्कि डेवलपर्स, कॉल सेंटर एजेंट्स, मार्केटिंग स्टाफ, यहाँ तक कि चाय बेचने वाले दुकानदार तक इस इकोसिस्टम से रोज़गार पा रहे थे।

आज अचानक बैन लग गया। सवाल उठता है—क्या सरकार ने इन युवाओं और परिवारों के लिए कोई वैकल्पिक रोज़गार योजना तैयार की? या सबको यूँ ही सड़क पर छोड़ दिया गया?

सरकार का दोहरा चरित्र

यहाँ सबसे बड़ी विडंबना है सरकार का चरित्र। जब तक इन कंपनियों से टैक्स आ रहा था, तब तक सरकार की आँखें बंद थीं। करोड़ों का जीएसटी, भारी-भरकम लाइसेंस फीस और राजनीतिक फंडिंग—ये सब सरकार की तिज़ोरी में जा रहे थे। लेकिन अचानक अब यह कंपनियाँ ग़लत और ग़ैर-ज़िम्मेदार बताई जा रही हैं।

अगर सचमुच जनता की भलाई का ध्यान होता, तो सरकार शुरुआत से ही इन ऐप्स को नियंत्रित करती, सख़्त नियम बनाती, और लोगों को लत से बचाने के लिए हेल्पलाइन व परामर्श केंद्र खोलती। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। सरकार को तब तक परवाह नहीं थी, जब तक उसकी कमाई जारी थी।

असली कारण क्या है?

यहाँ असली सवाल है—क्या यह बैन सिर्फ़ जनता की सुरक्षा के लिए है, या इसके पीछे कोई और चाल है?
इतिहास गवाह है, जब भी सरकारें किसी व्यवसाय को प्रतिबंधित करती हैं, तो दो ही बातें होती हैं:

  1. या तो वह बिज़नेस किसी बड़े खिलाड़ी के लिए सुरक्षित कर दिया जाता है।
  2. या फिर उसके लिए एक नया, सरकारी-नियंत्रित रास्ता तैयार किया जाता है, ताकि सारी कमाई सीधे सत्ता की झोली में जाए।

संभव है कि भविष्य में सरकार खुद अपने लाइसेंस्ड ऑनलाइन गेमिंग प्लेटफ़ॉर्म्स लेकर आए। उस समय वही लोग, जो आज प्रतिबंध से बर्बाद हो रहे हैं, फिर से निवेश करेंगे—लेकिन इस बार पूरी कमाई सीधे सरकार के हाथ में जाएगी।

युवा पीढ़ी की स्थिति

इस फैसले का सबसे बड़ा असर नौजवानों पर पड़ेगा। एक तरफ वे नौकरी की तलाश में भटक रहे हैं, दूसरी ओर उनके पास जो तकनीकी रोज़गार मिला था, उसे भी छीन लिया गया। जो युवा इस उद्योग में क्रिएटिविटी दिखा सकते थे, गेम डेवलपमेंट में नया योगदान दे सकते थे, उनकी मेहनत बेकार हो गई।

यह पीढ़ी पहले ही बेरोज़गारी और असुरक्षा से जूझ रही है। अब सरकार के इस कदम ने उनकी मुश्किलें और बढ़ा दीं।

जनता से सवाल

क्या आपको नहीं लगता कि हर बार जब कोई नया बैन लगता है, तो सबसे ज़्यादा नुक़सान आम आदमी को ही झेलना पड़ता है?

  • शराब पर बैन हो या सिनेमा पर सेंसर,
  • नोटबंदी हो या गेमिंग पर प्रतिबंध,

सत्ता हमेशा यह दिखाती है कि वह जनता के हित में है। लेकिन असल में जो चोट लगती है, वह सबसे नीचे बैठे लोगों पर ही पड़ती है।

कंपनियों की ज़िम्मेदारी भी कम नहीं

यह भी सच है कि इन कंपनियों ने केवल मुनाफ़े पर ध्यान दिया। लाखों लोगों की लत का फायदा उठाकर उन्होंने अरबों की कमाई की। न जागरूकता अभियान चलाए, न ही यूज़र्स की सुरक्षा पर पर्याप्त ध्यान दिया।
अगर ये कंपनियाँ खुद नियम लागू करतीं—जैसे समय सीमा, खर्च की सीमा, आयु सीमा—तो शायद सरकार के पास इतना बड़ा हथियार ही न होता।

रास्ता क्या है?

अब ज़रूरत है कि जनता सवाल पूछे। न सिर्फ़ सरकार से, बल्कि इन कंपनियों से भी।

  • सरकार से यह सवाल कि जब टैक्स खा रहे थे तब क्यों नहीं सुधारा?
  • और कंपनियों से यह सवाल कि जनता की लत और बर्बादी पर इतना पैसा क्यों कमाया?

अंतिम बात

यह बैन न पूरी तरह अच्छा है, न पूरी तरह बुरा। यह एक अधूरा, हड़बड़ी में लिया गया फैसला है। इससे सरकार अपनी छवि चमकाएगी, कंपनियाँ कोर्ट के चक्कर लगाएंगी और सबसे ज़्यादा नुकसान वही झेलेगा जिसकी कोई सुनवाई नहीं—आम जनता।

अगर सचमुच सरकार जनता की भलाई चाहती है, तो उसे प्रतिबंध के साथ-साथ विकल्प भी देने होंगे। युवाओं को नए रोज़गार देने होंगे, लत से पीड़ित लोगों के लिए काउंसलिंग सेंटर बनाने होंगे और सबसे अहम—नीतियों में ईमानदारी लानी होगी।

क्योंकि लोकतंत्र का असली मतलब यही है—जनता का शासन, जनता के लिए, जनता के द्वारा। लेकिन क्या आज यह सच है? या सत्ता सिर्फ़ अपना खेल खेल रही है और जनता हर बार प्यादे की तरह बिसात पर बिछाई जा रही है?


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