
बैपटिस्ट हॉस्पिटल के रिसेप्शन हॉल में, जहाँ चारों तरफ़ अफ़रातफ़री और चीख-पुकार का माहौल था, एक दस साल का बच्चा ज़मीन पर बैठा अपने छोटे भाई को गोद में लिए बैठा था। उसका नाम है ज़ैन — महज़ दस साल का, लेकिन हालातों ने उसे माँ-बाप दोनों बना दिया।
शनिवार की रात, इस्राइली बमबारी ने ग़ाज़ा के अल-अक़ाफ़ बेघर पुनर्वास केंद्र को निशाना बनाया, जहाँ सैकड़ों विस्थापित परिवारों ने शरण ली थी। इस हमले में 16 लोगों की मौत हुई — जिनमें 7 बच्चे, 5 महिलाएं और 3 पुरुष शामिल हैं — और दर्जनों घायल हैं। ज़ैन के परिवार पर यह तबाही ऐसे गिरी कि उसके सिर से माँ-बाप का साया ही छिन गया।
“अम्मी अभी आ जाएँगी…”
अपने भाई की आँखों से आँसू पोंछते हुए, और अपनी छोटी बहन को छाती से लगाए ज़ैन यह कहता रहा — “अम्मी अभी आ जाएँगी…” — जबकि उसे खुद पता था कि अब कोई नहीं आएगा।
बमबारी में उजड़ा घर, बिखरा बचपन
अल-अक़ाफ़ केंद्र में रह रहे ज़ैन और उसके परिवार का सब कुछ इस हमले में उजड़ गया। डॉक्टरों के मुताबिक ज़ैन का छोटा भाई बुरी तरह घायल है, बहन सदमे में है और परिवार के बाकी सदस्य अब इस दुनिया में नहीं रहे।
स्थानीय पत्रकार बताते हैं कि यह हमला रात के उस पहर हुआ जब ज़्यादातर लोग सो रहे थे। अचानक हुए विस्फोट ने सब कुछ तहस-नहस कर दिया। लोगों की चीखें, मलबे के नीचे दबे शरीर, और रौशनी के लिए जलती टॉर्चें — सबने मिलकर ग़ाज़ा की एक और ‘कब्र रात’ को जन्म दिया।
ज़ैन अकेला नहीं — यह कहानी हर उस बच्चे की है जो फ़लस्तीन में ज़िंदा है
ज़ैन अकेला ऐसा बच्चा नहीं है। संयुक्त राष्ट्र की एक हालिया रिपोर्ट के अनुसार, ग़ाज़ा में हर सात में से एक बच्चा बमबारी में किसी करीबी को खो चुका है। कई बच्चे तो ऐसे हैं जो अब PTSD (पोस्ट ट्रॉमैटिक स्ट्रेस डिसऑर्डर) से जूझ रहे हैं।
ग़ाज़ा की गलियों में अब स्कूल की घंटियाँ नहीं, एम्बुलेंस के सायरन गूंजते हैं। खेलने की जगहों पर अब मलबा है। माँ की लोरी की जगह अब बच्चे तोपों की आवाज़ से जागते हैं।
दुनिया ख़ामोश है… और ज़ैन की आँखों में सन्नाटा
वर्ल्ड लीडर्स ट्वीट करते हैं, प्रेस कॉन्फ्रेंस करते हैं, लेकिन ज़ैन की कहानी उन तक नहीं पहुँचती। जब उनसे पूछा जाता है तो जवाब होता है — “हम स्थिति पर नज़र रख रहे हैं।”
लेकिन ग़ाज़ा में ज़िंदगी हर मिनट बदतर हो रही है।
क्या इस ख़ामोशी की कीमत ज़ैन और उसकी बहन को चुकानी पड़ेगी?
अस्पताल बना आश्रय — और बच्चा बना अभिभावक
हॉस्पिटल में किसी रिश्तेदार के न होने पर डॉक्टरों ने ज़ैन को ही गार्जियन बना दिया है।
“हमने कभी नहीं सोचा था कि हमें एक 10 साल के बच्चे से उसकी बहन की मेडिकल कंसेंट लेनी पड़ेगी,” एक नर्स ने बताया।
ज़ैन अब हर फॉर्म पर साइन करता है, दवाइयाँ देता है, और कभी खुद को रोने नहीं देता।
क्योंकि अब उसके आँसू उसकी बहन को डरा सकते हैं।
अंतर्राष्ट्रीय मानवाधिकार संस्थाएँ क्या कर रही हैं?
एमनेस्टी इंटरनेशनल और ह्यूमन राइट्स वॉच जैसी संस्थाओं ने इस हमले की निंदा की है। लेकिन क्या सिर्फ़ निंदा से ज़ैन का भविष्य बदलेगा?
संयुक्त राष्ट्र ने बार-बार इस्राइल से नागरिक इलाकों पर हमले बंद करने को कहा है, लेकिन नतीजे ज़मीन पर नज़र नहीं आते।
मीडिया कवरेज का असंतुलन — क्या ज़ैन मुस्लिम होने की सज़ा भुगत रहा है?
पश्चिमी मीडिया में इस हमले की ख़बरें सीमित हैं। बड़े अख़बारों और चैनलों ने इस मुद्दे को दो पैरा में समेट दिया।
कई लोग सवाल उठा रहे हैं कि अगर यही ज़ैन यूरोप का होता, तो क्या अब तक हज़ारों लेख न लिखे जा चुके होते?
क्या अब भी तुम्हारा दिल नहीं काँपा?
ज़ैन की कहानी एक रिपोर्ट नहीं, एक सवाल है —
क्या हम सबने इंसानियत से मुँह मोड़ लिया है?
क्या हमें आदत हो चुकी है बच्चों की लाशें देखने की?
क्या अब आँकड़े हमारे ज़मीर को झकझोरते नहीं?
उम्मीद की आख़िरी किरण — आवाज़ उठाइए!
अगर आप यह रिपोर्ट पढ़ रहे हैं, तो चुप मत रहिए।
सोशल मीडिया पर शेयर कीजिए। अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं को ईमेल कीजिए।
अपने नेताओं से पूछिए कि वो कब बोलेंगे?
ज़ैन अब भी हॉस्पिटल के कोने में बैठा है — माँ को याद करता हुआ।
और शायद आपको देख रहा है — उम्मीद भरी नज़रों से।
क्या आप उसकी उम्मीद बनेंगे?