
जब एक महिला ने संभाली कमान
जिस देश में पुरुषों की हार पर हेडिंग्ले जैसे मैदानों में चर्चाएं गर्म रहती हैं, वहीं एक महिला टीम ने अंग्रेज़ धरती पर 97 रनों की करारी शिकस्त देकर बता दिया कि अब इतिहास लिखने वाले हाथ बदल चुके हैं।
हां, यही हुआ 28 जून को ट्रेंट ब्रिज में, जब नियमित कप्तान हरमनप्रीत कौर की गैरमौजूदगी में स्मृति मंधाना ने न सिर्फ कप्तानी की बागडोर संभाली, बल्कि बल्ले से अंग्रेज़ों को वह जवाब दिया, जो शब्दों में मुमकिन नहीं था।
सिर्फ जीत नहीं, एक बयान था यह
भारत ने पहले बल्लेबाज़ी करते हुए 20 ओवर में 210 रन ठोके। मंधाना की सेंचुरी सिर्फ आंकड़ा नहीं थी, वह उस चुप्पी का तोड़ थी जो महिला क्रिकेट को हमेशा ‘पूरक’ समझती रही है।
210 का स्कोर भारत की महिला क्रिकेट टीम के लिए एक घोषणापत्र की तरह था — “हम अब सिर्फ हिस्सा नहीं हैं, हम अब मुक़ाबले में बराबरी से खड़े हैं।”
गेंदबाज़ों ने किया कमाल, इंग्लैंड हुआ ढेर
जब इंग्लैंड की पारी शुरू हुई, तो उम्मीद थी कि हो सकता है वे मुकाबला करें। लेकिन सिवाय नैट सिवर-ब्रंट के 66 रनों के कोई टिक नहीं पाया।
चार विकेट लेने वाली श्री चरनी, जिन्होंने इस मैच में डेब्यू किया, वो उस हर उस लड़की की कहानी हैं, जिसे दुनिया ने कहा था “पहले कुछ कर के दिखाओ।”
भारत ने इंग्लैंड को महज़ 14.5 ओवर में 113 रन पर समेट दिया — यानी सिर्फ रन नहीं गिरे, बल्कि अहंकार भी टूटा।
हरमनप्रीत का न खेल पाना वरदान साबित हुआ
कभी-कभी इतिहास तब बनता है जब अनजाने में कुछ छूट जाता है। कप्तान हरमनप्रीत का चोटिल होकर बाहर होना भले एक झटका था, लेकिन मंधाना के लिए वह अवसर बन गया।
और इसी में Harleen Deol का नाम भी जोड़ लीजिए — जो शायद बेंच पर होतीं, पर अपनी पारी से उन्होंने दिखा दिया कि “हर बेंच पर बैठने वाला खिलाड़ी कमजोर नहीं होता, कभी-कभी बस मौका देर से आता है।”
सातवें ओवर में टूटी दीवारें
सातवां ओवर इस मैच का टर्निंग पॉइंट बना। मंधाना ने इंग्लैंड की स्टार स्पिनर सोफी एक्लेस्टन को दो छक्के और एक चौका जड़कर बता दिया कि
“यह पिच बल्लेबाज़ों के लिए बनी है और इसका असली हक़ हमें भी है।”
मंधाना का शतक – सिर्फ रन नहीं, प्रतीक था
जब मंधाना ने सेंचुरी पूरी की, वो सिर्फ रन का जश्न नहीं था, वह representation का उत्सव था। वह हर उस लड़की के लिए था जिसे कहा गया था कि क्रिकेट लड़कियों का खेल नहीं है।
वह हर दर्शक, हर आलोचक, हर चयनकर्ता के लिए जवाब था —
“हम सक्षम हैं, लेकिन हमें बराबरी से देखो।”
निष्कर्ष: यह सिर्फ मैच नहीं था, आंदोलन था
यह जीत एक ट्रॉफी की नहीं थी — यह जीत थी नजरिये की।
जहां पुरुषों की हार ‘राष्ट्रीय बहस’ बनती है, वहां महिलाओं की यह ऐतिहासिक जीत भी उतनी ही सुर्खियों में आनी चाहिए। लेकिन क्या आएगी?
शायद नहीं। क्योंकि यहां मुद्दा खेल से ज़्यादा पहचान का है। और यही पहचान आज मंधाना, श्री चरनी और हरलीन देओल ने दोबारा से परिभाषित कर दी।
अब सिर्फ खेल में नहीं, सोच में भी बराबरी ज़रूरी है।