तेलंगाना की धरती पर गणेश चतुर्थी की शोभायात्रा के दौरान जो तस्वीरें सामने आईं, उन्होंने त्योहार की रौनक के साथ-साथ एक सिहरन भी छोड़ दी। भीड़ में लगे बैनरों पर दिख रही थीं दो छवियाँ—एक उस शख्स की जिसने आज़ादी के इतिहास में गोली दागकर गांधी को चुप करा दिया था, और दूसरी उस नाम की, जिसे आज की गैंगस्टर दुनिया में खौफ़ और अपराध के प्रतीक की तरह गढ़ा गया है।
सोचने की बात है—गणपति उत्सव, जहाँ भक्ति, कला और संस्कृति की झलक मिलनी चाहिए थी, वहाँ हत्यारों और अपराधियों के चेहरे क्यों सजे थे? क्या ये किसी की धार्मिक आस्था का हिस्सा था, या जानबूझकर एक वैचारिक संदेश?
यह घटना बाइंस इलाके की बताई जा रही है, जहाँ 4 सितंबर को ‘डीजे यात्रा’ के नाम पर ये बैनर लगाए गए। सोशल मीडिया पर तस्वीरें फैलते ही सवाल उठने लगे—क्या प्रशासन अंधा है? क्या आयोजकों को यह मंज़ूरी दी गई थी? और अगर नहीं, तो पुलिस अब तक खामोश क्यों है?
त्योहारों पर अक्सर राजनीति का रंग चढ़ा दिया जाता है, लेकिन यह मामला और गहरा है। यहाँ सिर्फ भक्ति का इस्तेमाल नहीं हुआ, यहाँ हिंसा और अपराध के प्रतीकों को महिमा मंडित करने की कोशिश हुई।
क्या ये सामान्यीकरण की प्रक्रिया है? यानी धीरे-धीरे समाज को यह आदत डाल देना कि हत्यारे और अपराधी भी पूजा के पंडालों पर जगह पा सकते हैं। या फिर यह सीधा-सीधा संदेश है—हम अपने नायक खुद चुनेंगे, चाहे वो इतिहास में कलंक क्यों न हों।
गांव-शहर में लोग इसे लेकर दो हिस्सों में बंट गए हैं। कुछ ने कहा—”ये परंपरा का हिस्सा नहीं, ये राजनीति का खेल है।” कुछ ने चुप रहना ही बेहतर समझा। लेकिन खामोशी भी एक तरह की सहमति होती है, और यही सबसे बड़ा खतरा है।
पुलिस और प्रशासन की भूमिका पर भी सवाल खड़े हैं। जब सोशल मीडिया पर यह तस्वीरें आम हो चुकीं, तो कार्रवाई का क्या हाल है? या फिर यह वही पुरानी कहानी है—‘सिर्फ जांच चल रही है’?
त्योहार का मकसद समाज को जोड़ना होता है, लेकिन यहाँ गणपति की आड़ में समाज को तोड़ने और जहरीले प्रतीकों को साधारण बनाने की कोशिश हुई। और यही वह बिंदु है, जहाँ हमें खुद से पूछना होगा—हम किस ओर जा रहे हैं?
