June 17, 2025
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भारत की विदेश नीति और वैश्विक कूटनीतिक समीकरणों को लेकर पिछले कुछ वर्षों में जितनी सुर्खियाँ बनी हैं, उतनी शायद किसी भी लोकतांत्रिक देश में नहीं बनी होंगी। हर दौरे को ‘ऐतिहासिक’ बताया गया, हर रैली को ‘वैश्विक समर्थन’, और हर प्रेस कांफ्रेंस को ‘नया युग’। लेकिन आज जब रूस जैसे पुराने रणनीतिक साझेदार की नज़दीकी पाकिस्तान से बढ़ रही है, तो यह सवाल करना बेहद जरूरी है — क्या वाकई हम विश्वगुरु बन गए हैं, या हमने केवल अपने प्रचारतंत्र के आईने में खुद को ऐसा देखना शुरू कर दिया है?


कूटनीति बनाम कॉस्मेटिक यात्राएँ

2014 में जब नरेंद्र मोदी ने प्रधानमंत्री की शपथ ली, तब जनता को उम्मीद थी कि भारत की विदेश नीति नई ऊँचाइयों को छुएगी। और ऐसा प्रतीत भी हुआ — कैमरों की चमक, विदेशी धरती पर “मोदी-मोदी” के नारे, विदेशी मीडिया में चर्चा और फोटोशूट्स। 88 विदेश यात्राएँ, 72 देश, दर्जनों रोड शो और रैलियाँ — यह सब भारत के एक आम नागरिक को चकाचौंध में डाल देता है।

प्रधानमंत्री के पहनावे, घड़ियों, पेन, चश्मों और यहां तक कि परफ्यूम तक की चर्चा इसलिए हुई क्योंकि यह सब मीडिया के ज़रिए जनता के बीच लगातार परोसा गया। लेकिन क्या इन सबका कोई ठोस कूटनीतिक परिणाम सामने आया?


रूस और पाकिस्तान: नयी दोस्ती के मायने

रूस के साथ भारत के संबंध ऐतिहासिक रूप से बेहद घनिष्ठ रहे हैं — शीतयुद्ध काल से लेकर ब्रह्मोस मिसाइल तक। रूस न केवल भारत का हथियार साझेदार रहा है, बल्कि रणनीतिक मामलों में भारत का भरोसेमंद सहयोगी भी। लेकिन आज जब रूस पाकिस्तान से रक्षा, ऊर्जा और व्यापार संबंधों को बढ़ा रहा है — तो हमें यह मानने में झिझक नहीं होनी चाहिए कि यह भारत की विदेश नीति की असफलता नहीं तो कमज़ोरी ज़रूर है।

पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था हमसे बारह गुना छोटी है, उसका अंतरराष्ट्रीय प्रभाव नगण्य है, लेकिन रूस जैसे देश से उसकी बढ़ती निकटता हमारे लिए एक चेतावनी है। यह सिर्फ रूस की “ग़लती” नहीं है — यह हमारी विदेश नीति की सीमाओं का परिणाम भी है।


“अबकी बार ट्रंप सरकार” और अमेरिकी सियासत में दखल

विदेश नीति के इतिहास में भारत ने हमेशा संतुलन बनाए रखने की कोशिश की है। लेकिन 2019 में जब अमेरिका में “अबकी बार ट्रंप सरकार” का नारा मोदी जी की रैली से गूंजा, तो एक नई बहस शुरू हो गई — क्या भारत ने किसी दूसरे देश के चुनाव में परोक्ष हस्तक्षेप किया? यह न केवल कूटनीतिक रूप से असंवेदनशील था, बल्कि अमेरिका जैसे देश के राजनीतिक ध्रुवीकरण में भारत को फंसा सकता था।

वह चुनाव ट्रंप हार गए। और इसके बाद अमेरिका में सत्ता परिवर्तन के साथ भारत की ‘नजदीकियाँ’ भी थोड़ी ठंडी पड़ीं। यह घटनाक्रम बताता है कि लोकप्रियता और नारेबाज़ी विदेश नीति के विकल्प नहीं हो सकते।


मोदी की विदेश यात्राएँ: जनता की पूंजी या प्रचार का साधन?

प्रधानमंत्री की यात्राएँ किसी भी देश के लिए ज़रूरी होती हैं। लेकिन जब यात्राओं में करोड़ों रुपये विदेशी मुद्रा पर खर्च हों, और परिणाम सिर्फ भीड़ जुटाने, गिफ्ट देने, और मीडिया शो के रूप में सामने आएं —

तो जनता को यह पूछने का हक़ है: हमें क्या मिला?

प्रधानमंत्री द्वारा जो बाइडेन की पत्नी को महँगा गिफ्ट देने से लेकर विदेशी स्टेज पर चमकते सूट्स और 6 बार कपड़े बदलने तक, यह सब तब और ज़्यादा चुभने लगता है जब देश के भीतर महंगाई, बेरोज़गारी, गिरती स्वास्थ्य व्यवस्था और शिक्षा संकट से जनता जूझ रही हो।


“विश्वगुरु” की संज्ञा: आत्ममुग्धता का जाल?

“विश्वगुरु भारत” — यह नारा हर मंच पर दोहराया गया। कहा गया कि दुनिया अब भारत से पूछे बिना कोई कदम नहीं उठाती। लेकिन फिर “पहलगाम” जैसी घटनाएँ होती हैं, जब सुरक्षा एजेंसियों को भी नहीं पता होता कि कौन, कब, कहाँ हमला कर देगा। ऐसे समय में अगर पाकिस्तान जैसी अर्थव्यवस्था हमारे विरोध में वैश्विक समर्थन जुटा रही हो और रूस जैसे दोस्त उसके साथ खड़े नजर आएं — तो यह खुद से सवाल करने का समय है।


ग़लतियाँ कब स्वीकारेंगे?

हर देश की विदेश नीति में उतार-चढ़ाव आते हैं, लेकिन सवाल तब उठता है जब सरकारें ग़लतियों को मानने के बजाय उन्हें छिपाने के लिए प्रचार तंत्र का इस्तेमाल करती हैं।

“गोदी मीडिया” नाम से विख्यात मीडिया संस्थानों ने हर विदेश यात्रा को क्रांति, हर रैली को ऐतिहासिक, और हर उपहार को नीति बताया। लेकिन ज़मीनी सच्चाई ये है कि आज भारत अकेला खड़ा है — न चीन हमारे साथ है, न रूस, न अमेरिका। क्वाड और ब्रिक्स के मंचों पर भारत को संतुलन बनाए रखने की जो कोशिश करनी पड़ती है, वह भी अब खतरे में है।


क्या आगे का रास्ता है?

  1. विदेश नीति को प्रचार से अलग करना होगा – नीति और लोकप्रियता अलग विषय हैं।
  2. पड़ोसियों से संबंध सुधारने होंगे – पाकिस्तान, नेपाल, बांग्लादेश और श्रीलंका को केवल ‘छोटा’ समझना हमारी भूल है।
  3. बहुपक्षीय मंचों पर नेतृत्व का तरीका बदलना होगा – केवल फोटो खिंचवाना और भाषण देना कूटनीति नहीं होती।
  4. विपक्ष की भूमिका और सलाह को जगह देनी होगी – विदेश नीति सर्वदलीय सोच और निरंतरता की मांग करती है।

निष्कर्ष: आलोचना से डर क्यों?

रूस-पाकिस्तान की दोस्ती भारत के लिए केवल एक कूटनीतिक चुनौती नहीं है — यह हमारी विदेश नीति के आत्ममुग्ध और आत्मकेन्द्रित रवैये का परिणाम भी है। आलोचना का मतलब राष्ट्रविरोध नहीं होता, बल्कि यह लोकतंत्र की सबसे बड़ी खूबी होती है। आज ज़रूरत इस बात की है कि हम आत्ममंथन करें — चकाचौंध के पर्दे के पीछे असल तस्वीर को समझें।

कहीं ऐसा न हो कि हम ‘विश्वगुरु’ बनने के चक्कर में ‘विश्व से कटे’ राष्ट्र बन जाएं।

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